वांछित मन्त्र चुनें

यदापो॑ऽअ॒घ्न्या इति॒ वरु॒णेति॒ शपा॑महे॒ ततो॑ वरुण नो मुञ्च। अव॑भृथ निचुम्पुण निचे॒रुर॑सि निचुम्पु॒णः। अव॑ दे॒वैर्दे॒वकृ॑त॒मेनो॑ऽय॒क्ष्यव॒ मर्त्यै॒र्मर्त्य॑कृतं पुरु॒राव्णो॑ देव रि॒षस्पा॑हि ॥१८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। आपः॑। अ॒घ्न्याः। इति॑। वरु॑ण। इति॑। शपा॑महे। ततः॑। व॒रु॒ण॒। नः॒। मु॒ञ्च॒। अव॑भृ॒थेत्यव॑ऽभृथ। नि॒चि॒म्पु॒णेति॑ निऽचुम्पुण। नि॒चे॒रुरिति॑ निऽचे॒रुः। अ॒सि॒। नि॒चि॒म्पु॒ण इति॑ निऽचुम्पु॒णः। अव॑। दे॒वैः। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। एनः॑। अ॒य॒क्षि॒। अव॑। मर्त्यैः॑। मर्त्य॑कृत॒मिति॒ मर्त्य॑ऽकृतम्। पु॒रु॒राव्ण॒ इति॑ पुरु॒ऽराव्णः॑। दे॒व॒। रि॒षः। पा॒हि॒ ॥१८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:18


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) उत्तम प्राप्ति कराने और (देव) दिव्य बोध का देनेहारा तू (यत्) जो (आपः) प्राण (अघ्न्याः) मारने को अयोग्य गौवें (इति) इस प्रकार से वा हे (वरुण) सर्वोत्कृष्ट ! (इति) इस प्रकार से हम लोग (शपामहे) उलाहना देते हैं, (ततः) उस अविद्यादि क्लेश और अधर्माचरण से (नः) हम को (मुञ्च) अलग कर। हे (अवभृथ) ब्रह्मचर्य और विद्या से निष्णात (निचुम्पुण) मन्द गमन करनेहारे ! तू (निचेरुः) निश्चित आनन्द का देनेहारा और (निचुम्पुणः) निश्चित आनन्दयुक्त (असि) है, इस हेतु से (पुरुराव्णः) बहु दुःख देनेहारी (रिषः) हिंसा से (पाहि) रक्षा कर, (देवकृतम्) जो विद्वानों का किया (एनः) अपराध है, उसको (देवैः) विद्वानों के साथ (अवायक्षि) नाश करता है, जो (मर्त्यकृतम्) मनुष्यों का किया अपराध है, उसको (मर्त्यैः) मनुष्यों के साथ से (अव) छुड़ा देता है ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापक और उपदेशक मनुष्यों को शिष्यजन ऐसे सत्यवादी सिद्ध करने चाहियें कि जो इन को कहीं शपथ करना न पड़े। जो-जो मनुष्यों को श्रेष्ठ कर्म का आचरण करना हो, वह-वह सबको आचरण करना चाहिये और जो अधर्मरूप हो, वह किसी को कभी न करना चाहिये ॥१८ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(यत्) याः (आपः) प्राणाः (अघ्न्याः) हन्तुमयोग्या गावः (इति) (वरुण) सर्वोत्कृष्ट (इति) अनेन प्रकारेण (शपामहे) उपालभामहे (ततः) तस्मादविद्यादिक्लेशादधर्माचरणाच्च (वरुण) वरप्रापक (नः) अस्मान् (मुञ्च) पृथक् कुरु (अवभृथ) विद्याव्रतस्नातक (निचुम्पुण) मन्दगामिन्। अत्र चुप मन्दायां गतावित्यस्मादौणादिक उणन् प्रत्ययो मुमागमश्च (निचेरुः) निश्चितानन्दप्रदः (असि) (निचुम्पुणः) निश्चितानन्दयुक्तः (अव) (देवैः) विद्वद्भिः (देवकृतम्) देवैराचरितम् (एनः) पापम् (अयक्षि) नाशयसि (अव) (मर्त्यैः) अविद्वद्भिर्मनुष्यैः (मर्त्यकृतम्) मर्त्यैराचरितम् (पुरुराव्णः) बहुदुःखप्रदात् (देव) दिव्यबोधप्रद (रिषः) हिंसनात् (पाहि) ॥१८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वरुण देव ! यतस्त्वं यदापोऽघ्न्या इति वरुणेति वयं शपामहे ततो नो मुञ्च। हे अवभृथ निचुम्पुण ! त्वं निचेरुर्निचुम्पुणोऽसीति पुरुराव्णो रिषस्पाहि, यद्देवकृतमेनोऽस्ति तद् देवैरवायक्षि, यन्मर्त्यकृतमेनोऽस्ति तन्मर्त्यैः सहावायक्षि ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - अध्यापकोपदेशकैः शिष्या ईदृशाः सत्यवादिनः सम्पादनीया यदेतैर्यद्यत् पापात्मकं तत्तत् कदाचित् केनचिन्नो अनुष्ठेयम् ॥१८ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अध्यापक व उपदेशकांनी आपल्या शिष्यांना अशाप्रकारे सत्यवादी बनवावे की, त्यांना (सत्याची) शपथ घेण्याची वेळ येता कामा नये. मानवासाठी जे श्रेष्ठ आचरण असेल त्याप्रमाणे सर्वांनी वागले पाहिजे व जे अधर्मरूपी आचरण असेल त्याचा त्याग केला पाहिजे.